Tuesday, December 9, 2014

...वो कम्बख्त दिन

कभी पढ़ने के लिए कॉलेज गए
तो कभी लड़ने के लिए ।
कभी मिलना था 'उनसे'
कभी मिलाना था 'उन्हें'
कभी कहने से गए सर के
कभी गए बन संवर के
कभी धूप सेंकने के लिए
क्लास छोड़ दी
कभी बेसिर पैर के सवाल पूछने पर निकाल दिए
क्लास से
कभी होम वर्क नहीं किया
इसलिए नहीं गए क्लास में
कभी नजर नहीं आते थे
'अपने' क्लास में
इसलिए मारते थे बंक
कभी इसलिए छोड़ते थे क्लास
कि टीचर पढ़ाने के बजाए
मारते थे डंक
इन कभी कभी में
बहुत कुछ छूट गया
मसलन जो नहीं हुआ कभी
कम्बख्त
सब करना चाहता हूं अभी !
( नवंबर 2012 में मन में जो आया वो लिख दिया । कविता है भी और नहीं भी । )

Tuesday, October 21, 2014

समर्पण की कविता

ग़र जिंदगी एक किताब है
तो तुम कवर हो मेरी जिंदगी का ।
मेरी जिंदगीनुमा किताब को तुम्हीं ने
आकर्षक बनाया
खुद थपेड़े सहती रही
और मुझे बचाती रही हर नुकसान से
मैं फट कर बिखर सकता था कई बार
संवारती रहीसजाती रही
सारे जख्म सहकर
कवर होने का फर्ज तुम निभाती रही 
लेकिन मैं अपने किताब होने के कर्तव्य से दूर हूं ?
बस शब्दों और वाक्यों पर इतरा रहा हूं
लेकिन तुम हो तभी तो मैं हूं ।
कवर हो तुम मेरी जिंदगी का
और जिंदगी एक किताब है । 


Monday, October 20, 2014

बधाई हो...

पहले हम याद रखते थे
मां बाबू जी की मैरिज एनवर्सिरी
भाई - बहनों के डेट ऑफ बर्थ
सबसे पसंदीदा टीचर का जन्मदिन

ढोलक की थाप - थाप सुनते
याद हो गए थे कई जन्मदिन
छोटों बच्चों के बर्थडे पर
बाकायदा कार्ड आते
और पड़ोसी तो कई दिन पहले से
याद दिलाते
बुधवार को छुटकू का जन्मदिन है
अगले महीने बड़कू का

खुद भी बच्चे थे
नहीं जानते थे
कुछ रुठ कर केक कटवाते थे
जन्मदिन के दिन मिलते थे
सायकिल और घड़ी ।
स्कूल में चाकलेट खाते
और थैंक्यू बोल देते
लेकिन याद नहीं रखते थे डेट
फिर भी
कुछ तिथियां स्मृति पटल पर
जम गईं
तो कुछ चिपक कर रह गईं

ठीक से याद नहीं
बीस साल पहले
किसी ने
अपनी बेटी का जन्मदिन मनाया हो
या अपनी बहन को विश किया हो
औपचारिकता भी नहीं
अड़ोस, पड़ोस और सामने वाली
ताईयों और चाचियों  ने लला के जन्मदिन पर कथा कराई
लेकिन अपनी लालियों को
आशीर्वाद देने की जहमत शायद ही उठाई

जब हम कुछ बड़े हो गए
तो कॉलेज में , ट्यूशन में
याद रखने लगे थे
कुछ लड़कियों के जन्मदिन
और फिर
तारीख पर
काफी सोच समझ कर बोलते थे
हैप्पी- बर्थडे ।

अब तो रोज
कहते हैं
लिखते हैं
हैप्पी बर्थडे
ना दिमाग की जरुरत है
ना दिल की
रात बारह बजे ही मिल जाती है जानकारी
आज फलाने की है बारी
वॉल पर वॉलपेपर या फिर धीरे से
लिखा
बधाई हो ।

कुछ भी आड़े नहीं आता
ना लिंग भेद
ना मतभेद
दुनिया बदल गई है
बधाई हो ।


( 25 दिसंबर 2012 को लिखी कविता जो हर्षवर्धन जी (बतंगड़ वाले) की फेसबुक वॉल पर साझा की । ) 

Saturday, October 18, 2014

....अपवाद भी होते हैं

कॉलेज के दिनों का
कुछ-कुछ भूलने लगा हूं ।
कुछ चेहरे याद रह गए हैं
तो नाम पता नहीं
अगर नाम स्मरण है
तो सूरत गुमशुदा हो गई
कुछ चेहरे गहरे बैठे हैं
दिल में
कुछ नाम छप गए हैं
दिमाग में
 फिर भी कुछ अधूरा सा है याददाश्त में
सही हूं मैं , सही में
कुछ-कुछ भूलने लगा हूं ।
क्लास रुम तो याद है
लेकिन लैबोरेटरी के प्रेक्टिकल नहीं

रीडिंग रूम की सीढ़ियां
अरे हां, वहीं जो संकरी सी थी
याद है, भूलना शुरु हुआ है
भूला नहीं हूं, सब कुछ
हां ये सच है
कुछ - कुछ भूलने लगा हूं ।
यादों से इतना प्यार क्यों है तुम्हें ?
बीते से इतना लगाव क्यों है तुम्हें ?

पूछना पड़ेगा
भूलना जरूरी तो नहीं होता
विज्ञान में , मनोविज्ञान में

वास्तविकता से पीछा छुड़ा पाओगे
अधेड़ होते शरीर को
उसके थके से दिमाग को
क्यों याद रखना है सब कुछ
जो तुम छोड़ आए हो पीछे, बहुत पीछे
क्या भूल नहीं जाना चाहिए
तुम्हें वो सब
जो छूट गया है पीछे, बहुत पीछे
चाहता हूं तो
कि सब भूल जाऊं
कुछ - कुछ भूलने लगा है ।
जब धीरे धीरे सबकुछ भूल जाऊंगा
तब भी याद रहेगा
नाम और चेहरा तुम्हारा
चलो मान लिया
भूलना होगी एक प्रक्रिया
पर अपवाद हर कहीं होते हैं
ये तो कॉलेज में कई बार पढ़ा होगा
जब वाजिब तर्क मौजूद ना हो
तो "एक्सेप्शन ऑर एवरीव्हेयर"
कुछ कुछ भूलने लगा हूं
फिर भी नहीं भूलूंगा बहुत कुछ
विश्वास है
अपवादों के होने का ।
क्यों होते हैं ?
नहीं पता । 

हमेशा साथ रहोगे सचिन

स्कूल 
खेल का मैदान 
घर के पास कूी वो दुकान 
सड़क 
छत 
स्टडी रुम 
टेलीफोन 
ट्यूशन 
सब जगह सचिन साथ होता था।
बचपन 
लड़कपन 
यौवन 
हर कहीं मौजूद रहा है सचिन।
पिता 
मां 
दीदी 
दोस्त 
एक सचिन पर सब बतियाते थे।
सब चले गए 
सचिन को भी जाना था 
लेकिन थोड़ा थोड़ा रहेगा 
हमेशा हमारे साथ।

( 16 नवंबर 2013 को सचिन ने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास लिया और इसी दिन मैंने इंडिया न्यूज से इस्तीफा दिया,16 नवंबर 2013 को फेसबुक पर लिखी कविता ) 

Saturday, October 23, 2010

एक सांझ

एक सांझ बैठी है
सूरज के साथ
डूबते हुए आसमान में

फिजूलखर्ची कर दी


तकदीर तो पहले सी ही उजड़ी थी
वक्त ने उनकी तस्वीर कितनी धुंधली कर दी है
जो जमा यादें सहेजकर रखी थीं...
एक रोज उनकी फिजूलखर्ची कर दी